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राष्ट्रीय आत्मसम्मान का प्रश्न

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जमीन पर अगर कहीं स्वर्ग है तो यहीं है, यहीं है, यहीं है। मुगल बादशाह शाहजहां ने यह बात कश्मीर के लिए कही थी। इसमें कोई दो राय नहीं है कि वास्तव में जमीन पर अगर स्वर्ग की कल्पना की जाए तो निश्चित रूप से कश्मीर जैसी ही कुछ रूपरेखा उभरेगी। प्रकृति ने दोनों हाथों से सौंदर्य का खजाना जिस तरह कश्मीर पर लुटाया है, वैसी वह शायद किसी और जगह पर मेहरबान नहीं हुई। कश्मीर की धरती को देखकर हम आप भी वहीं कहेंगे, जो शाहजहां ने कहा था। उसका सौंदर्य अब भी उतना ही दिलकश है जितना सदियों पहले था और आगे भी वैसा ही बना रहेगा, पर अफसोस की बात है कि इस सौंदर्य को अलगाववादियों की नजर लग गई है। पिछले दो-तीन दशकों से यह पूरा क्षेत्र आतंकवाद की चपेट में है। आतंकवाद ने न केवल इसकी अर्थव्यवस्था का सत्यानाश करके रख दिया है, बल्कि इसके पूरे जनजीवन को ही अस्त-व्यस्त करदिया है। इससे भी त्रासद बात यह है कि अब यह उसकी संस्कृति पर हमला करके उसकी आत्मा को ही कुचल देता है और हमारी व्यवस्था यह सब होते हुए चुपचाप देख रही है।

यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि सीधे युद्ध में बार-बार मुंह की खाने के बाद पड़ोसी देश पाकिस्तान ने वहां छद्मयुद्ध छेड़ रखा है। आतंकवाद के नाम पर कश्मीर में जो कुछ भी हो रहा है वह इस छद्मयुद्ध का ही हिस्सा है। अपनी कुख्यात खुफिया एजेंसी आईएसआई या उसके पोषित आतंकवादी प्रशिक्षण कैंपों के जरिये यहां उसके जारी रहने का खर्च भी वही भेजता है। उसी पैसे के लिए कभी मुट्ठी भर पत्थरबाज पूरी घाटी के सीधे-सादे लोगों की जिंदगी दुश्वार कर देते हैं और कभी अलगाववादी नेता अचानक कश्मीरी अवाम के इतने हमदर्द हो जाते हैं कि उन्हें यहां सब कुछ स्याह दिखने लगता है। जिस धरती पर वे रहते हैं और जिसके अन्न, जल व हवा से उनका जीवन चलता है, कुछ रुपयों के लिए उसी के प्रति गद्दारी करते हुए न तो उन्हें उनकी आत्मा धिक्कारती है और न शर्म ही उन्हें आती है। इसी के लिए कभी वे सांप्रदायिक विद्वेष फैलाते हैं और कभी ऐसे निरर्थक मुद्दे खड़े करते हैं जिनका वास्तव में कहीं कोई अस्तित्व ही नहीं होता है। अफसोस यह है कि हमारी सरकारें यह सब होते हुए सिर्फ देखती रहती हैं। कश्मीरी जनता कतई न तो अलगाववादियों के साथ है और न उनके द्वारा पोषित तत्वों के ही साथ। वह खुद को अखंड भारत का हिस्सा मानती है और भारत के साथ बनी रहने में ही वह खुद को हर तरह से सुरक्षित महसूस करती है। उसे अपने आर्थिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक हित भारत में रहते हुए ही सुरक्षित दिखाई देते हैं। इसका प्रमाण केवल उनकी शांतिप्रियता और मेहमाननवाजी को तवज्जो से ही नहीं बल्कि कई दूसरी बातों से भी मिलता है। पर्यटन उनकी आय का महत्वपूर्ण जरिया होने के नाते कश्मीरी लोग यूं तो हर टूरिस्ट का दिल से स्वागत करते हैं, लेकिन भारतीय पर्यटकों को देखते ही उनके चेहरे पर जो चमक उभरती है, वह इस बात को बता देती है कि देश के विभिन्न प्रांतों से आने वाले लोगों के प्रति उनके मन में कितना गहरा अपनापन है। जरा सी बातचीत की स्थिति बनते ही आतंकवाद और अलगाववाद के प्रति उनके मन में नफरत की जो परते हैं, वह भी खुलने लगती हैं। इन्हीं अलगाववादियों के कारण जान-माल के भय से बुरी तरह सहमे हुए लोग खुले तौर पर अपने मन का दर्द बयान करते हुए भी डरते हैं।

हैरत और बेहद शर्म की बात है कि आम जनता के ऐसे गहरे जुड़ाव के बावजूद घाटी में कई जगह यह नारा लिखा दिखाई देता है, ”इंडियन एंड डॉग्स आर नॉट अलाउड”। इस जुमले का मतलब तो साफ है, लेकिन यह जुमला वहां सरकार के होने और उसके मतलब पर सवाल जरूर उठाता है। यह सिर्फ जम्मू-कश्मीर सरकार ही नहीं बल्कि पूरे देश की सरकार के लिए एक सवालिया निशान है। केंद्र सरकार और सभी राज्य सरकारों के लिए भी यह एक गंभीर प्रश्न भी है। हमारे ही देश में रहते हुए कोई हमें साफ शब्दों में गालियां दे रहा हो और हम उसे बर्दाश्त कर रहे हों, इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती है? आखिर भारत की तमाम राजनीतिक पार्टियां क्या कर रही हैं? अपने स्वार्थो के लिए बिना बात के मुद्दों पर आम लोगों का जीवन दुश्वार कर देने वाली राजनीतिक पार्टियां सिर्फ चाय की प्याली में तूफान खड़ा करना ही जानती हैं या राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ने में भी इनकी कोई दिलचस्पी है? अगर है, तो एक राष्ट्र के लिए इससे बड़ा मुद्दा और क्या हो सकता है कि हर तरफ उसकी व्यवस्था के रहते हुए भी उसकी ही सीमा में उसकी संप्रभुता की आत्मा कुचली जाए? भारत सरकार कमजोर नहीं है, इसमें कोई दो राय नहीं है। अगर यहां की सरकार कमजोर होती तो पाकिस्तान के सीधे हमलों का मुंहतोड़ जवाब देना उसके लिए संभव नहीं होता। जिस तरह उसने पंजाब में आतंकवाद को नियंत्रित किया है, वह किसी कमजोर सरकार और व्यवस्था के बस की बात नहीं थी। अभी भी वह नक्सलवाद और आतंकवाद के दूसरे प्रकारों से जिस तरह निपट रही है और संबंधित राज्य सरकारें जैसा सहयोग उसे दे रही हैं, वह किसी भी देश के लिए मिसाल है। फिर ऐसी क्या वजह है कि कश्मीर घाटी में सैकड़ों जगहों पर यह भद्दा वाक्य लिखा होने पर भी हमारी सरकार कुछ भी नहीं कर रही है? क्या इसके मूल में सिर्फ राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी है या कुछ और? आज नहीं तो कल, इसका जवाब राजनेताओं को देना ही पड़ेगा।

सच तो यह है कि राजनेता गंभीर हों न हों, पर पूरे देश की जनता कश्मीर मसले पर गंभीर है। देश के हर शख्स के लिए कश्मीर के हालात एक सवाल हैं और वह इस सवाल का जवाब चाहता है। जम्मू-कश्मीर समेत पूरे भारत का आम आदमी यह बात मानता है कि यह समस्या आसानी से सुलझने वाली नहीं है। पाकिस्तान के राजनीतिक नेतृत्व के साथ भले ही आप इसे कूटनीतिक मेजों पर सुलझाते रहें, पर कश्मीर में अलगाववादियों को सिर्फ एक ही तरीके से समझाया जा सकता है और वह है बल प्रयोग। शिष्ट और अहिंसक रास्ते पर चल कर इन्हें जितनी भी तरह से समझाया जा सकता है, हर तरह से समझा कर देखा जा चुका है। जब इतनी कोशिशों के बावजूद वे नहीं माने तो फिर अब यह उम्मीद क्यों की जा रही है? यह समस्या को सिर्फ टालना नहीं तो और क्या है? बेहतर होगा कि राजनेता राष्ट्रीय आत्मसम्मान के इस महत्वपूर्ण मसले के प्रति टालू रवैया छोड़कर इसके वास्तविक समाधान की दिशा में प्रभावी कदम बढ़ाए।


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